पंडित जवाहरलाल नेहरू को भारत की जनता का जितना समर्थन और प्रेम मिला उतना बहुत कम ही राजनेताओं को मिली

PATNA (BIHAR NEWS NETWORK – DESK)

स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की राजनीतिक दृष्टि और उनके कूटनीतिक फैसलों के बिना स्वाधीन भारत का इतिहास नहीं लिखा जा सकता। जन्म जयंती (14 नवंबर) पर पंडित नेहरू के भारतीय राजनीति में उदय व प्रभाव पर पढ़ें ये आलेख..।

पंडित जवाहरलाल नेहरू को भारत की जनता का जितना समर्थन और प्रेम मिला उतना बहुत कम ही राजनेताओं को मिला। 1930 से 1964 तक वे देश की राजनीति के केंद्र में रहे।

पूरी दुनिया में इस बात को लेकर आश्चर्य था कि 1962 में चीन के हाथों पराजय के बाद भी नेहरू प्रधानमंत्री बने रह सके। वस्तुत: वे देहावसान तक प्रधानमंत्री बने रहे।

बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक से पांचवे दशक की राजनीति पर पुनर्विचार करते हुए आज कहा जा सकता है कि नेहरू की राजनीतिक दृष्टि और कूटनीतिक फैसलों में ऐसी कई बातें हैं जिनकी आलोचना की जा सकती है।

यह भी कहा जा सकता है कि नेहरू के मिथकीय स्वरूप की निर्मिति में एक खास किस्म के राजनीतिक प्रभाव का भी योगदान था। …और यह भी, कि नेहरू को देश का नेता बनने में पिता के प्रभावों का बहुत सहयोग मिला था।

देखा जाए तो पंडित जवाहरलाल नेहरू को जब 1929 में कांग्रेस के अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया, तभी से वे देश के प्रथम श्रेणी के नेता के रूप में माने जाने लगे।

इसके पूर्व के डेढ़ दशक में किसान आंदोलन के दौर में यात्राओं के अलावा उनकी कोई खास भूमिका नहीं थी। वे पंडित मोतीलाल नेहरू के पुत्र और उनके मित्र महात्मा गांधी के पुत्र समान रूप में ही अधिक देखे गए।

बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में राजनीतिक लड़ाइयां हुईं, आपस में कामों का बंटवारा भी हुआ, मोतीलाल नेहरू चितरंजन दास के साथ स्वराज पार्टी बनाकर सरकार में हिस्सेदारी की तरफ बढ़े और नो चेंजर्स के रूप में धुर गांधीवादी (सरदार पटेल, राजगोपालाचारी, राजेंद्र प्रसाद आदि) इससे अलग रहे, लेकिन जिस राजनीतिक तंत्र ने कांग्रेस को नियंत्रित किया वह मोतीलाल नेहरू और महात्मा गांधी की जुगलबंदी से ही चला।

बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में कांग्रेस की राजनीति में बहुत उलट-फेर हुए। इस दौरान कांग्रेस में अनुशासन और महात्मा गांधी के प्रति समर्पण, इन दो आधारों पर पार्टी को संभालने का पूरा जिम्मा सरदार वल्लभभाई पटेल पर था।

जनता में लोकप्रिय होने का सुयोग नेहरू को मिला। कायदे से तो संगठन की ओर से पटेल को ही नेतृत्व करना था, लेकिन महात्मा गांधी के कारण नेहरू को वरीयता मिली। नेहरू की छवि युवाओं में एक नायक सी बनी।

‘गान्ही और जमाहिर’ का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलता था पर यह छवि प्रचारित अधिक थी। वास्तविक शक्ति महात्मा गांधी और पटेल के पास ही थी।

जवाहरलाल नेहरू ने आत्मकथा और समाजवादी चाशनी में छनी राष्ट्रीय दृष्टि से अद्भुत किस्म का जादू फैला दिया।

नेहरू और बोस अब बहुतों के लिए गांधी-पटेल का विकल्प थे। विडंबना यह भी है कि प्रिय होने के बावजूद नेहरू ने महात्मा गांधी का वैचारिक विरोध किया जब तक कि गांधी-पटेल का नेतृत्व बिखरा नहीं।

1942 के समय भी यही हुआ। राजगोपालाचारी और नेहरू पहले आंदोलन शुरू करने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन अंतत: नेहरू ने 1942 के आंदोलन का प्रस्ताव प्रस्तुत किया! उसके बाद राजनीति बदल गई।

नेताओं ने जेल में रहते हुए रणनीति में कुछ परिवर्तन किए। 1945 में नेहरू बाहर आए और उनका कद काफी बढ़ा। अंग्रेजों ने नेहरू और पटेल से बातचीत की और महात्मा गांधी को सम्मान देना ही उचित समझा।

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