जानिए क्यों 10 दिनों तक मनाया जाता है मुहर्रम का गम, जानें कर्बला के इतिहास के बारे में

PATNA (BIHAR NEWS NETWORK- DESK)

इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक नए साल की शुरुआत मुहर्रम के महीने से होती है। शिया मुसलमानों के लिए ये महीना बेहद गम भरा होता है। जब भी मुहर्रम की बात होती है तो सबसे पहले जिक्र कर्बला का किया जाता है। आज से लगभग 1400 साल पहले तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी।

ये जंग जुल्म के खिलाफ इंसाफ के लिए लड़ी गई थी। इस जंग में पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथी शहीद हो गए थे। इसलिए कहा जाता है हर कर्बला के बाद इस्लाम जिंदा होता है। इस्लाम की जहां से शुरुआत हुई, मदीना से कुछ दूरी पर मुआविया नामक शासक का दौर था।

मुआविया के इंतकाल के बाद शाही वारिस के रूप में उनके बेटे यजीद को शाही गद्दी पर बैठने का मौका मिला। लोगों के दिलों में बादशाह यजीद का इतना खौफ था कि लोग यजीद के नाम से ही कांप उठते थे। पैगंबर मोहम्मद की वफात के बाद यजीद इस्लाम को अपने तरीके से चलाना चाहता था।

जिसके लिए यजीद ने पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को उसके मुताबिक चलने को कहा और खुद को उनके खलीफे के रूप में स्वीकार करने के लिए कहा। यजीद को लगता था कि अगर इमाम हुसैन उसे अपना खलीफा मान लेंगे तो इस्लाम और इस्लाम के मानने वालों पर वह राज कर सकेगा।

हुसैन को ये बिल्कुल मंजूर नहीं था और हुसैन ने यजीद को अपना खलीफा मानने से इंकार कर दिया। यजीद से हुसैन का इंकार करना सहन नहीं हुआ और वह हुसैन को खत्म करने की साजिश करने लगा। यजीद की बात न मानने के साथ ही हुसैन ने अपने नाना पैगंबर मोहम्मद का शहर मदीना छोड़ने का भी फैसला किया।

मुहर्रम की दूसरी तारीख को जब हुसैन कर्बला पहुंचे तो उस समय उनके साथ एक छोटा सा लश्कर था, जिसमें औरतों से लेकर छोटे बच्चों तक कुल मिलाकर 72 लोग शामिल थे। इसी दौरान कर्बला के पास यजीद ने इमाम हुसैन के काफिले को घेर लिया और खुद को खलीफा मानने के लिए उन्हें मजबूर किया। लेकिन हुसैन ने यजीद को खलीफा मानने से  इंकार कर दिया।

हुसैन के कर्बला पहुंचने के बाद मुहर्रम की 7 तारीख को  इमाम हुसैन के पास खाने पीने की जितनी भी चीजें थीं वे सभी खत्म हो चुकीं थीं। ये देखकर यजीद ने  हुसैन के लश्कर का पानी भी बंद कर दिया। मुहर्रम की 7 तारीख से 10 तारीख तक इमाम हुसैन और उनके काफिले के लोग भूखे प्यासे रहे। लेकिन इमाम हुसैन सब्र से काम लेते रहे और जंग को टालते रहे।

हर ढलते दिन के साथ यजीद के जुल्म बढ़ते ही जा रहे थे। ये देखने के बाद इमाम हुसैन ने अपने काफिले में मौजूद लोगों को वहां से चले जाने के लिए कहा। लेकिन कोई भी हुसैन को छोड़कर वहां से नहीं गया। मुहर्रम की 10 तारीख को यजीद की फौज ने हुसैन और उनके साथियों पर हमला कर दिया।

इसी जंग के दौरान मुहर्रम की 10 तारीख को यजीद की फौज ने इमाम हुसैन और उनके साथियों का बड़ी बेरहमी से कत्ल कर दिया। उनमें हुसैन के 6 महीने के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे कासिम भी शहीद हो गए थे। यही वजह है कि मुहर्रम की 10 तारीख सबसे अहम होती है, जिसे रोज-ए-आशुरा कहते हैं।

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